Thursday, June 27, 2019

khidki bachpan ki

खिड़की मेरे बचपन की
खुलती है तुम्हारी तरफ मेरे दोस्त
शरारतों की खनक होती थी
तुम्हारे आने से जब हर रोज़

स्कूल के बेख़याल दिन
जब क्लास में बैग फेंक
भाग जाते थे हम खुले मैदान
कोई रोक नहीं थामती हमें
बस थे धागे दोस्ती के दरमियान

टीचर की डाँट पे भी हंसी की फुआर
आखरी बेंच पे किलकारियों की कतार
एक दूसरे की नोटबुक पे लिखना
चुटकुले और अनकहे राज़ कई हज़ार

वो लंच टाइम की घंटी
जैसे जेल से छूटे कैदी
और पड़ोसी के टिफ़िन की महक
हमेशा लगती अपनी से कहीं अच्छी

कॉरिडोर में हमारे जूतों की गर्जन
कभी खुसपुसाहट जब मैडम पढ़ाती थी लेसन
केमिस्ट्री टीचर का हर बात पे चॉक फेंकना
कहना- रहोगे तुम लोग हमेशा ही डफर

कैसे साल बीते बने दशक
जीवन में घुली कितनी ही नई महक
गालियाँ कुछ छूटी कुछ रास्ते ही बदल गए
अपनी मंज़िल की तरफ हम बिना रुके जो बड़े

पर आज भी खिड़की खोलती हूँ जब
घड़ी हर घड़ी बचपन की
वहीं रुके हुए तेरे क़दमों से मिलते हैं मेरे कदम
मानों सालों की अटूट संगत हो मेरे मन की









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