Monday, August 17, 2015

बड़ी मुद्दत हुई तुझे याद किये हुए ,
तुझे भूलने की कोशिश से मुझे फुर्सत कहाँ
लोग कहते हैं मदहोश हूँ मैं एक ज़माने से,
तेरे तबस्सुम के दीदार के परे अब हसरत कहाँ

कह सकते हो इसे नशा या फिर इबादत,
साकी की महफ़िल की चाह या फिर खुदा के दर की तलब.…

पर मेरे तासूर में मत ढूंढ मेरी मुहब्बत का बयान,
ये तो हर  एक नफ़ज़ में मौज़ूद है
मत गुमराह हो गर मेरे लहज़े से बेखुदी ना टपके,
बड़ी मुद्दत हुई इज़हारे इश्क़ किये हुए....

Monday, April 27, 2015

मय  की आदत नहीं हमें ,
हमको तो है साकी की महफ़िल की चाह

कोई और कितने ही में डूबा दे चाहे,
बस उस एक के साथ में ही है सारा नशा!

Friday, February 27, 2015

रात हुई एक बार फिर,
और एक  बार फिर आप आये ख्वाबों में
सहर ने भी दरवाज़ा खटखटाया,
और पहली नज़र खुली आप ही के ख़यालों से.


दिन भर ताना-बाना  बुनती रही,
करती रही आप ही से उलझी-सुलझी बातें।
फिर शब के इंतज़ार में शाम आई,
आपके तबस्सुम की झलक छुपाये हुए.


ख्वाब जीती हूँ या फिर.…
हक़ीक़त का एहसास करती हूं।
मेरे वक़्त के हर पहर का ब्यान…
तेरी ही किसी कहानी से सुनाती  हूँ.