Friday, November 23, 2018

असमंजस

एक दरवाज़ा खुला है
बरसों से बिना कोई आहट किये
उम्र भर की दास्तान कहने
या फिर इम्तिहां हर बार वो लिए

कभी इस ओर तो कभी चौखट के पार
मेरे कदम बस उस द्वार के ही आस पास
घड़ी हर घड़ी .....लगातार

ज़िन्दगी जैसे सिमट सी,
उलझ सी गयी हो इस असमंजस में
या फिर उस खुले किवाड़ के होने के उल्लास में

जैसे रात के बाद सुबह का इंतज़ार
और फिर ढलते सूरज की राह ताकती मैं बार बार

जैसे मुकाम हो सामने
और सारा जीवन टटोलते हुए जाए गुज़र
मंज़िल इस तरफ है कि
कदमों को पार करना होगा ये दर

दोस्त कुछ ही राहों पे तो साथ मेरे चल
थोड़ी गुफ़्तगू करें और थोड़े रंज सहें मिलकर
थोड़े उल्टे सीधे कारनामे और कुछ संजीदगी के पल
मेरी ज़िंदगी की किताब में जुड़ जाएं बेदखल

फिर जब तन्हाई की आगोश में खामोश बैठूंगी
यूँ ही एकटक राहों को निहारे सुनसान दर
याद करेगा मेरा दिल उन दोस्ती की कहानी कहे पन्नो को
और गर्माहट होगी मेरी काँपती रूह में बसर

तुम्हारी आवाज़ गूंजेगी कानों में
जैसे कल ही की बात हो
एक एक लफ्ज़ ताज़ा लगेगा इन पन्नो का
जैसे ज़िन्दगी भर की सौगात हो