Saturday, July 27, 2019

बारिश की रुमझुम सी लय
लाती है याद तुम्हारी क्यों प्रिय
क्यों बादल की गरजन में लगे
थामूं हाथ तुम्हारा, तुम्हारा ही निस्संदेह

गीली मिटटी की सौंधी सी महक
और हवा से खेलती हुई सर्द सी दोपहर
क्यों मीठी सी शर्माती धूप
मेरे आँगन में ढूंढे तुम्हारा ही रूप

मौसम को कैसे ये पता
मेरे मन में तुम्हारा प्रेम है कहाँ छिपा
तार कुछ पुराने क्यों ये छेड़ता
मेरे सर का ये आसमान बांवरा

क्यूं है इसे तलब तुम्हारी
मुझसे भी कहीं ज़्यादा
जैसे प्रेम का कोई क़िस्सा तुम्हारे साथ
बुना हो इसने भी पौना आधा

साज़िश है ये इन सबकी कि
आखिर बुला लूँ तुम्हें आंगन में अपने
बातें हमारे स्नेह की मुकम्मिल हो या नहीं
इस आसमान को तुम्हारा दीदार तो मिले






No comments: