Wednesday, March 13, 2019

आसमान ने शिकायत की ,
फिर हवाओं की मुझसे
मेरे बादलों को बेघर कर देती हैं
ना जाने किस की चाह है इन्हें

कल ही समेटा था नहरों से पानी
ख्वाब चमकती बूंदों के देखे थे
कैसे मानुष को अचंभित करेंगे
जब एकाएक बादलो से बरसेगी रवानी

हवा तू रुख क्यों नही बदलती अपना
अब जाड़े में आना इस ओर
जब रुई की तरह होंगे ये मेघ
ना बरसने की ललक ना गर्जन का शोर

अभी तो धरा बैचैन है भीगने को
सन्नाटा लपेटे सूर्य की किरणें ,
पढ़ती हैं जब इसपे
और जलती है रूह इसकी ध्वस्त

एक आशाहीन अभिलाषा लिए
करती है वो निरंतर आह्वान
रोक ले हवाओं का ये हाहाकार
ऐ, आसमान, अब तो अपना धन बरसा
अब तो बूंदो की मुझे झलक दे







1 comment:

Unknown said...

अति सुन्दर !