Monday, December 31, 2018

वक़्त से पूछा मैंने इक बार
क्यों पहर हर पहर बदलते हो रंग
रखते हो तारीखों का हिसाब
कभी रात और कभी दिन का लिबास
तुम्हारे साथ हमेशा छोटी ही रहती है
क्यों मेरी मुलाक़ात

उसने कहा बिना रुके बिना थामे
बदलते रहते हैं चाहे रूप मेरे
तुम कभी सोचो कि साथ हूँ तुम्हारे
कभी बुरा कहकर नकार दो भले ही मुझे

जानता हूँ हक़ीक़त यही मैं
मेरा वजूद नही कोई बिना तुम्हारे
चाहे नाम दे दो मुझे बीता हुआ या
फिर पुकार लो कहके साल वो आने वाला

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