Friday, September 29, 2017

Cherrapunji

दूर तक निगाहें जाने को तरसती
उनको रोके है यह कोहरे की चादर

सूरज भी सिमटा है भरी दोपहरी में
बादलों का कहर फैला है उसके हौसले पे

धुंध की रुई इतनी गहरी
जैसे मोटी रज़ाई चारों ओर जकड़े है मझे

मैं भी बारिश की अनगिनत बूंदों में पलों को गिनते हुए
बैठी हूँ खिड़की के इस तरफ कि जाने कब
धूप मुस्कुराते हुए बुलाये अपने आलिंगन में
और मैं फुदकते हुए खुले आसमान को नज़र भर देखूँ
बस एक ही घड़ी, पर दूर तक मेरी भी निगाह पहुँचे 

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