Saturday, April 11, 2020

hisaab

सिकुड़ी है दुनिया,
मेरी नज़र आजकल बस
मेरे आशिएँ तक की
फ़िर टकरा जाती है
सख़्त निर्जीव दीवारों से
वापस मेरे ही ज़ेहन में,
सिमट, सिकुड़ जाने के लिए

आसमां का टुकड़ा है एक
जैसे हिसाब से दिया मुझे
वही टुकड़ा रोज़ देखती हूँ
गर्दन को लम्बा किये
उसके बदलते रंग निहारती हूँ
उड़ते पंछी रुख करते हैं
कभी कभी इस टुकड़े को ओर
मेरे मन को पुलकित करने के लिए

चाँद रोज़ नहीं दिखता
कभी मुझसे मिलता है
तो कभी मेरे पड़ोसियों से
हिसाब उसको भी आ गया है
पर चाँदनी है अल्हड़
रोज़ मिलके गुदगुदाती है मुझे

कितने हिसाब किये हैं
जीवन भर हमने
आज वही चुकता रहें हैं शायद
टुकड़े जो किये हमने कई बार
उन्ही को समेट रहें हैं अब

नज़र है बेचैन
और श्वास है व्याकुल
किन्तु सूर्य की लालिमा जैसे
रूह अब भी है प्रबल
कि जो पूरा आसमां मिले कल सर पे
हिसाब कर देंगे हम सारे लुप्त
टुकड़ो के फ़लसफ़े पीछे जाएंगे छूट
जो सृष्टि दे हमें जब ऐसा कल 

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