Friday, January 3, 2020

wo darakht mere shehar ka


एक दरख्त मेरे घर से कुछ दूर

लंबा मज़बूत तना सीना 

और टहनियां सर्पीली, फ़ैली हुई

लहराती हवा में मौज मस्ती से चूर

 

जब गुज़रती थी मैं वहां से

खुसपुसर पत्ते करते थे मुझे देख

मैं मुस्कुराती तो फ़ूल उसके 

बिखर जाते ज़मीन पर

गहरे लाल और पीले

 

मुझे छेड़ते - कि रौंदों फूलों को जितना

नई सुबह के साथ नए रंग और भी खिलेंगे

मैं भी थी अल्हड़, खूब झूलती

टहनियों को तोड़ती

और वो चुपचाप अपनी बाहें फैलाये

छाया की गोद बनाता मेरे लिए

 

रोज़ का दस्तूर था सहेलियों के साथ

उन रास्तों से गुज़रना

उस दरख्त का मुझे देखना

और मेरा उस पर नज़र रखना

 

बहुत सालों बाद लौटी हूँ मैं

अपने शहर

लंबी काली सड़के पार करके

अब मेरा घर भी बड़ा है इस शहर की तरह

आधुनिकता की ओर अग्रसर

 

पर अब उस दरख्त की आवाज़ नही पड़ती कानों में

एक शोर उसे निगल गया है

बस एक छोटा सा जख्मी तना है मेरे बंगले के पास

भीड़ के बीच में उपेक्षित परिवेश पहने

ना छाया और ना ही रंगों का एहसास

 

अब धूप बहुत कड़ी लगती है 

जब उस रास्ते से गुज़रती हूँ मैं

आंखों में चुभता है अब वो रास्ता

सख्त बेजान और कोरा

 

उन टहनियों के साथ मेरी यादों के पन्ने गुम गए

सिहाई हल्की सी और शब्द मिटे से हुए

अब अनजान है वो रास्ता

अब अनजान सा मेरा शहर मुझे लगे

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