श्वास अनगिनत अशर्त जीवन के
बटोरे मैंने और तुमने
जब हवा जल और सूर्य धरती पे उजले
पुलकित मानुष और जीव जंतु हुए
कृति सुनहरी,
चक्षु संजोये दर्शन जिसके
ब्रमांड की अलौकिक अद्वित्य सृष्टि
देख मनुष्य भी दहाड़ा - रचूं मैं भी...
कुछ अद्भुत और अपूर्व
पर द्वेष और अहंकार से लिपटा
जैसे सर्प चंपा बेल को जकड़े
मानव ने तर्क वितर्क बहुत किये
और परम्परा के घेरे जन्में
सुशोभित करूँगा ये धरा
और उसपर सबका जीवन
जैसे गुलाब से सुसज्जित हो आँगन
किन्तु भूल गया वो शूल की पीड़ा
जब परम्पराओं ने जकड़ा, बाँधा
ना तू अमर ना ही अजर
तेरी कृति भी जायेगी एक दिन ढल
जैसे दिवस को डुबाये रात्रि का अन्धकार
और सर्द झोंको के पश्चात् ग्रीष्म का कहर
बदला चेहरा परंपरा ने भी
और इंसान त्रुटियाँ करता गया
बटोरे मैंने और तुमने
जब हवा जल और सूर्य धरती पे उजले
पुलकित मानुष और जीव जंतु हुए
कृति सुनहरी,
चक्षु संजोये दर्शन जिसके
ब्रमांड की अलौकिक अद्वित्य सृष्टि
देख मनुष्य भी दहाड़ा - रचूं मैं भी...
कुछ अद्भुत और अपूर्व
पर द्वेष और अहंकार से लिपटा
जैसे सर्प चंपा बेल को जकड़े
मानव ने तर्क वितर्क बहुत किये
और परम्परा के घेरे जन्में
सुशोभित करूँगा ये धरा
और उसपर सबका जीवन
जैसे गुलाब से सुसज्जित हो आँगन
किन्तु भूल गया वो शूल की पीड़ा
जब परम्पराओं ने जकड़ा, बाँधा
ना तू अमर ना ही अजर
तेरी कृति भी जायेगी एक दिन ढल
जैसे दिवस को डुबाये रात्रि का अन्धकार
और सर्द झोंको के पश्चात् ग्रीष्म का कहर
बदला चेहरा परंपरा ने भी
और इंसान त्रुटियाँ करता गया
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