ऐसा क्यों लगता है कि तुम होके भी नहीं हो
कि तुम्हारी हँसी तो गूंजती है कानों में मेरे
पर तुम्हारे दिल की मुस्कराहट
मुझसे दूर कहीं क्षितिज पे ठहरी हो
ऐसा क्यों लगता है कि हाथ थामे चल तो दिए
पर एहसास नहीं होता मुझे होने का तेरे
मेरे मन के कोने में एकांत सा है वातावरण
और भीड़ में भी संग तुम्हारे हम अकेले
ऐसा क्यों लगता है कि तुमसे कहके भी कुछ ना कहा
लफ़ज़ कई तुम्हारे पर दर्ज़ हुए ना ज़ेहन में मेरे
जैसे घंटों किस्से बोले तुमने मुझसे
पर मेरे कानों में ख़ामोशी के आलम ही रहे
लफ़ज़ कई तुम्हारे पर दर्ज़ हुए ना ज़ेहन में मेरे
जैसे घंटों किस्से बोले तुमने मुझसे
पर मेरे कानों में ख़ामोशी के आलम ही रहे
ऐसा क्यों लगता है कि तुम्हे आज भी ढूंढती हूँ
कि तुम्हारी ही आँखों में कहीं पा जाऊं तुम्हें
ऐसा क्यों लगता है जब भी साथ होती हूँ तुम्हारे
कि तुमसे ही माँगना चाहती हूँ मैं तुम्हे
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