दूर तक निगाहें जाने को तरसती
उनको रोके है यह कोहरे की चादर
सूरज भी सिमटा है भरी दोपहरी में
बादलों का कहर फैला है उसके हौसले पे
धुंध की रुई इतनी गहरी
जैसे मोटी रज़ाई चारों ओर जकड़े है मझे
मैं भी बारिश की अनगिनत बूंदों में पलों को गिनते हुए
बैठी हूँ खिड़की के इस तरफ कि जाने कब
धूप मुस्कुराते हुए बुलाये अपने आलिंगन में
और मैं फुदकते हुए खुले आसमान को नज़र भर देखूँ
बस एक ही घड़ी, पर दूर तक मेरी भी निगाह पहुँचे
उनको रोके है यह कोहरे की चादर
सूरज भी सिमटा है भरी दोपहरी में
बादलों का कहर फैला है उसके हौसले पे
धुंध की रुई इतनी गहरी
जैसे मोटी रज़ाई चारों ओर जकड़े है मझे
मैं भी बारिश की अनगिनत बूंदों में पलों को गिनते हुए
बैठी हूँ खिड़की के इस तरफ कि जाने कब
धूप मुस्कुराते हुए बुलाये अपने आलिंगन में
और मैं फुदकते हुए खुले आसमान को नज़र भर देखूँ
बस एक ही घड़ी, पर दूर तक मेरी भी निगाह पहुँचे
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